डिजिटल दानव : स्क्रीन की लत : एक पीढ़ी का विनाश

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                        डिजिटल दानव



 



जो आज का समय चल रहा है आप खुद से ही एक बार सोच करके देखिए कि हमारी पीढ़ी आज कहां पर जा रही है मैं आज आपको ऐसी कहानी बताने जा रहा हूं जिस पर फोकस करने की जरूरत है।







आप एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहाँ हर स्क्रीन एक मायावी जाल है, जहाँ बच्चे और बड़े एक अदृश्य दुश्मन के गुलाम बन चुके हैं। यह कहानी है उस खतरे की, जो धीरे-धीरे हमारे समाज को खोखला कर रहा है – 




गेमिंग और डिजिटल मीडिया की अंधी दौड़। जानिए कैसे एक मासूम सा शौक, विनाशकारी लत में बदलकर जिंदगियां बर्बाद कर रहा है, और क्या हम इस "डिजिटल दानव" से बच पाएंगे?  




                                कहानी

गाँव का माहौल अब शहरों तक पहुँच चुका था। कभी जहाँ बच्चे गलियों में शोर मचाते थे, वहाँ अब हर घर में सन्नाटा था, जिसे सिर्फ हेडफोन से आने वाली अज़ीब आवाज़ें भंग करती थीं। आकाश, जो कभी अपनी कक्षा का होशियार छात्र था, अब अपनी मम्मी की हज़ार मिन्नतों के बावजूद फ़ोन से चिपका रहता था। "बस एक और लेवल, मम्मी!" यह उसका रटा-रटाया जवाब था। उसकी आँखें लाल, शरीर दुबला और चेहरे पर हमेशा एक तनाव। उसे अपने दोस्तों से, किताबों से, यहाँ तक कि खाने से भी ज़्यादा प्यारा अपना 'गेमिंग वर्ल्ड' था।

यह सिर्फ आकाश की कहानी नहीं थी। पड़ोस में सीमा आंटी भी अपनी वेब-सीरीज़ की लत में इतनी डूबी थीं कि उन्हें घर-बार की सुध नहीं रहती थी। उनके पति, रमेश अंकल, जो कभी शाम को परिवार के साथ टहलने निकलते थे, अब घंटों अपने ऑनलाइन दोस्तों के साथ ताश का गेम खेलते रहते। ऑफिस में भी उनका ध्यान कम होने लगा था, जिससे उनके बॉस भी परेशान थे।

धीरे-धीरे, इस 'डिजिटल दानव' ने समाज को अपनी चपेट में ले लिया। स्कूलों में बच्चों का प्रदर्शन गिरने लगा। दोस्तों और परिवारों के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। लोग असली दुनिया से कटकर अपनी-अपनी वर्चुअल दुनिया में खो गए। एक माँ अपने बच्चे से बात करने को तरसती, एक पिता अपने परिवार के लिए समय नहीं निकाल पाता, और एक बच्चा खेल के मैदान के बजाय स्क्रीन पर ही हीरो बन जाता।

शहर में एक बुजुर्ग डॉक्टर, डॉ. विजय, इस स्थिति से बहुत दुखी थे। उन्होंने देखा कि कैसे उनके मरीज़ों में अनिद्रा, अवसाद और सामाजिक अलगाव जैसे लक्षण बढ़ रहे थे – सभी डिजिटल लत के कारण। उन्होंने कई बार लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन लोग मानते नहीं थे। उन्हें लगता था कि वे बस 'थोड़ा मनोरंजन' कर रहे हैं।

एक दिन, डॉ. विजय ने आकाश के माता-पिता से बात की। उन्होंने उन्हें समझाया कि यह सिर्फ़ एक शौक नहीं, बल्कि एक गंभीर समस्या है। उन्होंने एक अभियान शुरू किया – "स्क्रीन फ्री संडे"। शुरुआत में लोगों ने मज़ाक उड़ाया, लेकिन जब उन्होंने अपने बच्चों को फिर से पार्क में खेलते देखा, जब परिवारों को एक साथ भोजन करते देखा, तब उन्हें एहसास हुआ कि वे क्या खो रहे थे।

यह आसान नहीं था। कई लोगों ने विरोध किया। डिजिटल कंपनियां अपने मुनाफे के लिए लोगों को फँसाए रखना चाहती थीं। लेकिन डॉ. विजय और उनके समर्थकों ने हार नहीं मानी। उन्होंने दिखाया कि असली खुशी वर्चुअल दुनिया में नहीं, बल्कि अपने लोगों के साथ, प्रकृति के बीच और वास्तविक जीवन के अनुभवों में है।

धीरे-धीरे, बदलाव आया। लोगों ने अपनी स्क्रीन से दूरी बनाना शुरू किया। बच्चे फिर से किताबें पढ़ने लगे, कहानियाँ सुनने लगे। बड़े लोग फिर से शाम को साथ बैठने लगे, हँसी-मज़ाक करने लगे। 'डिजिटल दानव' पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ, लेकिन लोगों ने यह सीख लिया कि इस पर काबू कैसे पाया जाए। उन्होंने यह महसूस किया कि जीवन की असली कीमत सिर्फ़ 'टाइम वेस्ट' करने में नहीं, बल्कि उसे समझदारी से जीने में है।  


✒️ लेखक का हस्ताक्षर (Writer’s Signature)

~ अवधेश कुमार सैनी

📜 SWA रजिस्टर्ड लेखक (Reg. No. 20441)

🌱 संस्थापक — Kalam Verse (https://kalamversehindi.blogspot.com)

✍️ हर कहानी में एक धड़कन छुपी है,

जो आपके दिल से होकर गुज़रती है।




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