देश आज़ाद है - लेकिन हम नहीं | मर्मस्पर्शी हिंदी कहानी (15 अगस्त)
"आज तिरंगा लहरा रहा है… आसमान में, इमारतों पर, दिलों में। देश सचमुच आज़ाद है।
पर सवाल ये है — क्या हम, उसके नागरिक, सच में आज़ाद हैं?
हमारे पैर ज़मीन पर हैं, पर मन में डर, जेब में खालीपन, और दिल में दीवारें खड़ी हैं।
आज ज़ंजीरें लोहे की नहीं, सोच और हालात की हैं।"
कहानी – "देश आज़ाद है… पर हम आज़ाद नहीं"
सुबह के आठ बजे, एक छोटा कस्बा।
लोग चौक पर इकट्ठा हुए थे — तिरंगे के नीचे, पटाखों और भाषणों के बीच।
बच्चे मिठाई की कतार में खड़े थे, बड़े लोग मोबाइल में सेल्फ़ी ले रहे थे।
चेहरों पर मुस्कान थी… पर आँखों के पीछे एक थकान छुपी थी।
वहीं पास में, एक चाय वाले की दुकान पर रामू खड़ा था — पसीने से भीगा हुआ, जेब में सिर्फ़ 50 रुपये।
रामू सोच रहा था — "आज तो छुट्टी है… पर मुझे आज भी काम करना है, वरना घर में चूल्हा ठंडा रहेगा।"
हर जगह जवाब मिलता — "एक्सपीरियंस चाहिए"।
वरुण सोचता — "क्या ये भी कोई कैद से कम है?"
गाँव में, 60 साल के बुज़ुर्ग हकीम चाचा अपनी दुकान के सामने बैठे थे।
वो कहते —
"हम अंग्रेज़ों की गुलामी से तो निकल आए… पर जात, धर्म, और अमीरी-गरीबी की गुलामी में फँसे हैं।
लोग एक-दूसरे को पहचानते नहीं, बल्कि बाँटते हैं — नाम, कपड़े, और मंदिर-मस्जिद के नाम पर।"
किसी मोहल्ले में, दो दोस्त — अजय और शफ़ीक़ — अब बात भी नहीं करते थे।
चुनावी पोस्टर और सोशल मीडिया की नफ़रत ने उनकी बचपन की दोस्ती निगल ली थी।
आज दोनों अपने-अपने घर में बैठे थे, पर दिल में एक-दूसरे के लिए दीवारें बना चुके थे।
हाँ, देश आज़ाद है — पर…
बेरोज़गार युवा अपनी डिग्रियों के साथ घर में बैठे हैं।
किसान क़र्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर रहे हैं।
अमीर और अमीर हो रहे हैं, गरीब रोज़ की रोटी के लिए जूझ रहे हैं।
धर्म और जात की दीवारें इंसानियत से ऊँची हो गई हैं।
ये वो अदृश्य बेड़ियाँ हैं, जो हमें आज भी क़ैद में रखती हैं।
लेकिन…
आज भी रास्ता है, अगर हम चाहें तो।
सोच की आज़ादी लानी होगी — धर्म, जात, और नफ़रत से ऊपर उठकर इंसान को इंसान मानना होगा।
आर्थिक आज़ादी देनी होगी — शिक्षा, स्किल और रोज़गार को प्राथमिकता देकर।
समान अवसर बनाने होंगे — ताकि कोई बबली भूखी न सोए, और कोई वरुण बेरोज़गार न बैठे।
ईमानदार नेतृत्व चुनना होगा — जो कुर्सी नहीं, देश के लिए काम करे।
15 अगस्त की शाम…
चाय वाला रामू, बेरोज़गार वरुण, और हकीम चाचा चौक पर मिले।
रामू बोला —
"देश तो आज़ाद है… अब हमें अपने दिल और हालात को आज़ाद करना है।"
वरुण मुस्कुराया —
"हाँ, अब हमें सिर्फ़ तिरंगे को सलाम नहीं… बल्कि उसके मायने पूरे करने हैं।"
हकीम चाचा ने तिरंगे की तरफ़ इशारा करते हुए कहा —
"जब हर बच्चा पढ़ सके, हर पेट भर सके, और हर दि
ल से नफ़रत मिट सके…
उस दिन, बेटा, हम सच में आज़ाद होंगे।"
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✍ लेखक: अवधेश कुमार सैनी
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